17 सितंबर 2011

दबे-कुचले लोगों की आवाज थे हरी राम


शरीर से प्राण निकलने के बाद कोई भी रोए नहीं, किसी प्रकार का क्रियाक्रम न करवाया जाए, मेरे शरीर को सतलुज में बहा दिया जाए, ताकि मास को खाकर जीव तृप्त हो सकें। शरीर को जलाने से शरीर राख बन जाएगा और वह किसी काम नहीं आएगा। ये शब्द थे कामरेड हरी राम गोयल के। उनका मानना था कि शरीर से जब प्राण निकल जाते हैं तो आत्मा अपना चोला तुरंत बदल लेती है। इसलिए शरीर अगर जीवों के काम आ जाए, तो इससे बड़ा पुण्य कोई और नहीं हो सकता।
कामरेड हरी राम गोयल कम्युनिस्ट विचारों के होते हुए भी एक ऐसे संत थे, जो जीवन भर सामाजिक और राजनीतिक कुरीतियों के खिलाफ संघर्षरत रहे। दबे कुचले लोगों के अधिकारों के लिए लड़ते रहे। उनका जन्म पंजाब के धर्मकोट कस्बे में 1930 में लाला राम लाल गोयल के घर हुआ। वे भारतीय संस्कृति में उतना ही अटूट विश्वास रखते थे, जितना की कार्ल माक्र्स और लेनिन के कम्युनिस्ट विचारों में अपनी आस्था रखते थे। यहीं कारण था कि वे साम्यावादी नास्तिक विचारधारा के होते हुए भी ईश्वर में अटूट आस्था रखते थे। लेकिन वहमों-भ्रमों तथा अंधविश्वासों के घोर विरोधी थे। उनका मानना था कि यह शरीर ही सच्चा मंदिर है और इस शरीर से कमजोर और गरीब वर्गों की सेवा करना ही भगवान की पूजा करना है।
अपनी बाल्यवस्था में वे कुछ समय तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा में भी रहे। लेकिन जैसे ही उन्होंने अपनी जवानी को संभाला तो वे कम्युनिस्ट विचारधारा से भर गए। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। पार्टी के हर संघर्ष में अगली कतार में मिले। उनके पिता लाला राम लाल गोयल ने देश की आजादी के लिए प्रजामंडल लहर के दौरान एक साल की अंग्रेजों की जेल को हंसते हुए सहा। आजादी के बाद सरकार ने स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उन्हें ताम्र पत्र और पेंशन देने का अनुरोध किया। जिसे उन्होंने यह कहकर ठुकरा दिया कि वे किसी सम्मान या फिर राशि के लिए नहीं लड़ा, वे तो अपनी मां और अपनी माटी के लिए लड़ा है। इसलिए उसे आजादी की लड़ाई में किए गए कार्य की कीमत नहीं चाहिए। उन्हीं के नक्शे कदमों पर चलते हुए लाला हरी राम गोयल ने आजादी के बाद काले अंग्रेजों के खिलाफ चले संघर्ष में अहम भूमिका अदा की। कम्युनिस्ट विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए मजदूरों और किसानों के संगठनों में काम किया और उन्हें अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए जागरूक व संगठित भी किया। लेकिन इसकी एवज में कभी भी पार्टी में पद या फिर पुरस्कार की चाह नहीं की। लगभग 1956 में उन्होंने धर्मकोट को छोड़कर वर्तमान जिला सिरसा के गांव देसूजोधा को अपनी कर्म भूमि बनाया। गांव में रहकर कम्युनिस्ट विचारधारा को फैलाने का पूरा प्रयास किया। इस दौरान पार्टी के कई संघर्षों में ग्रामीणों को जोडऩे की भूमिका अदा की। लेकिन कुछ वर्षों के बाद डबवाली नगर में आ गए। इसके बाद अपनी मृत्यु तक डबवाली में ही अपनी कर्मभूमि बनाकर रहे।
पार्टी के आह्वान पर डबवाली में कई बड़े संघर्षों का नेतृत्व किया। जिसमें मजदूरों, किसानों और आम लोगों के लिए कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा चलाई गई जखीरा निकालो अभियान का नेतृत्व किया। वे अपने इरादे के पक्के थे और जो संकल्प धारण कर लेते उसे पूरा करके ही दम लेते। उन्होंने पार्टी में रहकर भी पार्टी नेताओं द्वारा कभी कभार अपनाई जाने वाली गलत नीतियों की भी मुखर होकर आलोचना की। उन्होंने कभी भी पार्टी के भीतर और पार्टी के बाहर अन्याय सहन नहीं किया। कामरेड हरी राम का स्वभाव मधुर था और व्यक्तित्व इतना आकर्षक की, जो भी कोई व्यक्ति उनके सानिध्य में आता, वह उन्हीं का बनकर रह जाता। उनकी ईमानदारी और स्वच्छ छवि के कारण उनके राजनीतिक विरोधी भी उनकी अक्सर प्रशंसा करते थे। उन्होंने व्यवसाय के रूप में आढ़ती से लेकर हैंडलूम तक का व्यवसाय किया। अपने व्यापार के दौरान उन्होंने बड़ी नजदीकी से एक किसान और मजदूर की पीड़ा को देखा था। यहीं कारण था कि वे दूसरों की पीड़ा को अच्छी प्रकार समझते थे। 30 अगस्त 2011, दिन मंगलवार की आधी रात को उन्होंने जिन्दगी और मौत के बीच संघर्ष करते हुए एक निजी अस्पताल में अपनी अंतिम सांस ली और इस नश्वर संसार को सदा के लिए अलविदा कह दिया। लोकलाज को देखते हुए गोयल के परिजनो और रिश्तेदारों ने उनकी इच्छा के विपरीत भारतीय संस्कृति के अनुरूप दाह संस्कार की पद्धति को अपनाया और उनकी अस्थियों को पावन गंगा में जल प्रवाहित किया। कामरेड हरी राम गोयल द्वारा किसान और मजदूर के लिए किए गए कार्यों को हमेशा याद रखा जाएगा और उन द्वारा अपनाए गए मार्ग को आगे बढ़ाने के लिए उनके पुत्र और पौत्र कृतसंकल्प हैं।

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