24 दिसंबर 2010

कानों में गूंजती है बच्चों की किलकारियां

डबवाली (लहू की लौ) बचपन में हिन्दोंस्तान-पाकिस्तान बंटवारे का दंश सहन करके डबवाली में आए। जवानी में मेहनत करके अपने आपको स्थापित किया। लेकिन बुढ़ापे में जब आराम का समय आया तो 23 दिसंबर 1995 ने उनके सपनों को उजाड़ दिया। पल भर में परिवार के सदस्य सदा के लिए जुदा हो गए। इस सदमें ने ऐसी टीस दी कि ताउम्र नहीं भुलाई जा सकती।
डबवाली की रामनगर कलोनी के निवासी बिशन कुमार मिढ़ा (72) तथा उनकी धर्मपत्नी कृष्णा मिढ़ा (70) ने बताया कि उनकी पुत्रवधू डिम्पल और बेबी तथा साथ में पौत्रियां रीतू, गुड्डू और पौत्र नन्नू पंद्रह साल पहले डीएवी स्कूल के सालाना समारोह में भाग लेने के लिए गए थे। लेकिन वहां पंडाल में लगी आग ने युवा पुत्रवधुओं सहित पौत्र-पौत्रियों को उनसे छीन लिया। घर के जिस आंगन में बच्चों की किलकारियां गूंजती थी, पुत्रवधुओं का स्नेह घर में चार चांद लगा रहा था, वह आंगन कुछ पलो में सुनसान हो गया। भगवान का क्रूर खेल यही समाप्त नहीं हुआ। बल्कि पुत्रवधू डिम्पल और पौत्री गुड्डू की मौत के बाद जो सदमा उसके बेटे भूपिन्द्र सिंह को लगा, उसने उसके बेटे को भी छीन लिया।
बिशन कुमार मिढ़ा के अनुसार साल 1948 में वे लोग पाकिस्तान में अपना कपड़े का बढिय़ा कारोबार लूटा-पुटा कर भारत आए थे। डबवाली में आकर उन्होंने सख्त मेहनत की। जिसका फल उन्हें अच्छे कारोबार के रूप में मिला। क्षेत्र में उनका नाम था। लेकिन 1995 की विभित्सय घटना ने उन्हें बुरी तरह से झकझोर कर रख दिया। जिसके चलते वे लोग अपनी दुकान छोड़कर घर पर बैठने को मजबूर हो गए।
आंखों में आंसू, चेहरे पर उदासी लिए हुए बिशन मिढ़ा ने बताया कि सदमें ने उन्हें जवानी में ही बुढ़ापा दे दिया। अब तो उनकी हालत यह है कि घर से दो कदम बाहर भी नहीं रख सकते। इन हालतों में उन्हें सरकार या डीएवी से कोई उम्मीद नहीं है। तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने पीडि़त परिवारों के सदस्यों को नौकरी देने का वायदा किया था, वह वायदा भी अब काफूर है। उन्होंने कहा कि मुआवजा किसी की जिन्दगी वापिस नहीं लौटा सकता। लेकिन जो गम पंद्रह साल पूर्व उन्हें मिला, वह अब भी उन्हें पहले जैसा दर्द दे रहा है। उठते-बैठते, सोते-जागते उनके कानों में केवल रीतू, गुड्डू और नन्नू की किलकारियां गूंजती हैं।

दर्द भरी कहानी है शैरी की

मां का साया उठने के बाद, पिता ने भी दुत्कारा, सरकारी मदद की जरूरत
डबवाली (लहू की लौ) दो साल की उम्र में मां ममता की ममतामयी छाया सिर से उठ गई। महज पांच साल की उम्र में पिता ने दुत्कार दिया। दादा-दादी, अपाहिज बुआ और चाचा ने परवरिश करके 17 साल का कर दिया। चार जनें मिलकर महज कुल 2500 रूपए महीना की पेंशन से अपने इस दुलारे को इंजीनियर बनाना चाहते हैं।
यह कोई हिन्दी फिल्म की कहानी नहीं। बल्कि यह दर्दभरी कहानी शैरी नामक युवक की है। जिसने 23 दिसंबर 1995 को डबवाली में घटित हुए अग्निकांड में अपनी माता को गंवा दिया। पिता के हाथ उसकी परवरिश आई, लेकिन पिता ने नई शादी के बाद बेटे को भूला दिया। जिसका सहारा बने वृद्धा अवस्था में उसके दादा-दादी तथा अपाहिज बुआ और चाचा।
शैरी शहर की रामनगर कलोनी में अपने दादा बिहारी लाल मिढ़ा (76), कृष्णा देवी (72), अपाहिज बुआ सरोज रानी (42), चाचा अशोक कुमार (35) के साथ रह रहा है। शैरी (17) ने बताया कि वह इस समय डीएवी स्कूल डबवाली में 12वीं कक्षा के नॉन मेडीकल ग्रुप का छात्र है। उसका सपना है कि वह इंजीनियर बनकर देश की सेवा के साथ-साथ अपने वृद्ध दादा-दादी और अपाहिज बुआ तथा चाचा का सहारा बन सके। लेकिन इस सपने को पूरा करने के लिए उसे पढ़ाई में मदद की जरूरत है। यहीं नहीं बल्कि इंजीनियरिंग करने के बाद नौकरी की भी जरूरत है।
शैरी के दादा बिहारी लाल मिढ़ा (76) ने बताया कि 1948 में भारत-पाकिस्तान बंटवारे के दौरान उन्हें अपना अच्छा चलता कपड़े का व्यवसाय पाकिस्तान से गंवाकर भारत के नगर डबवाली में आना पड़ा। यहां उन्होंने मेहनत की और शहर में नाम तथा यश पाया। अच्छा कारोबार था लेकिन डबवाली अग्निकांड ने उन्हें बुरी तरह से बिखेर दिया। उसकी आलीशान कोठी महज 8 लाख में बिक गई और नगर के मुख्य बाजार में स्थित कपड़े की बढिय़ा चलती दुकान महज 11 लाख में बेचनी पड़ी। जैसे-तैसे कर्ज तो चुका दिया। लेकिन अब उनके पास सहारे के लिए कुछ नहीं बचा। अग्निकांड में उसकी पुत्रवधू ममता मिढ़ा, जोकि डीएवी डबवाली में होनहार म्यूजिक अध्यापिका थी, 23 दिसंबर 1995 को वह मंच पर बच्चों का कार्यक्रम करवा रही थी, इस समारोह में लगी आग ने उसे उनसे छीन लिया। अब उन्हें तथा उनकी धर्मपत्नी को 500-500, अपाहिज बेटे अशोक तथा बेटी सरोज को 750-750 रूपये पेंशन मिलती है। इसी से ही वे गुजारा चलाते आ रहे हैं। उनकी इच्छा अपने पौत्र शैरी की इच्छा के अनुरूप उसे इंजीनियर बनाने की है। लेकिन आर्थिक हालतों के गुजरते वे उसे इंजीनियर कैसे बनाएं, यह समस्या उनके सामने है।
मिढ़ा ने कहा कि बुढ़ापे से जूझ रहे अग्निकांड पीडि़तों को सरकार मुआवजे के अतिरिक्त इतनी मासिक पेंशन दे कि उनका बुढ़ापा आसानी से गुजर सके। उनके आश्रय में पल रहे बच्चों को भी वे सहारा दे सकें। जिक्र योग है कि बिहारी लाल मिढ़ा की हालत इन दिनों काफी नाजुक है। वे मुश्किल से ही चल-फिर सकते हैं। हृदय और मधुमेह की समस्या ने उसकी आंखों की रोशनी भी छीन ली है। उसे सहारे की जरूरत है, जो सरकार आर्थिक सहायता करके ही कर सकती है।
यहां विशेषकर उल्लेखनीय है कि 23 दिसंबर 1995 को डीएवी स्कूल के सालाना समारोह में धधकी आग से वहां मौजूद 1300 दर्शकों में से 442 लोग शहीद हुए। जबकि 150 से भी ज्यादा घायल हुए। लेकिन इसके बावजूद भी ऐसे भी लोग हैं, जिन्हें अग्निकांड ने इतना भयंकर सदमा दिया है, कि वो अब तक भी इस सदमें से नहीं उठ पाए हैं। उनकी मानसिक, शारीरिक और आर्थिक स्थिति बुरी तरह डांवाडोल है।

पंद्रह सालों से राजनीति का शिकार बनाए जा रहे अग्निकांड पीडि़त

डबवाली (लहू की लौ) पंद्रह साल से अग्निकांड पीडि़तों को राजनीतिक अपनी राजनीति का ही शिकार बनाते आ रहे हैं। वोटों में पीडि़तों को सुविधाएं देने के नाम पर वोट तक बटोरते रहे हैं। लेकिन उन्हें पंद्रह सालों में कड़े संघर्ष के बाद केवल मुआवजा ही मिल पाया है। वह भी अभी अधूरा है। जबकि आश्वासनों के नाम पर कई लालीपॉप थमाए जा चुके हैं।
अग्निकांड के तुरंत बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने डबवाली आकर शहीदों की स्मृति में मेडीकल कॉलेज बनाने की घोषणा की थी और इसके साथ ही डबवाली के प्राथमिक सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र को सामान्य अस्पताल का दर्जा देकर 100 बिस्तर का अस्पताल देने के साथ-साथ इसमें बर्न यूनिट भी बनाने का वायदा किया था। लेकिन अभी तक यह अस्पताल 60 बिस्तरों तक ही सीमित है, वह भी कागजों में। बर्न यूनिट तो बनाने का नाम तक नहीं है।
सरकारों ने अग्निकांड पीडि़तों के नाम पर सहानुभूति बटोरने के लिए डबवाली में स्टेडियम बनाने की घोषणा की और स्टेडियम बना भी दिया। लेकिन इसे अग्निकांड में शहीद हुए बच्चों की स्मृति में केवल नाम दिया गया है। जबकि राजनीतिक फायदे के बाद इसका नाम चौ. दलबीर सिंह स्टेडियम रखा गया। हालांकि राजीव गांधी की स्मृति में कम्युनिटी हाल बनाया गया। लेकिन बाद में इसे भी यह कहकर प्रचारित किया गया कि इसे डबवाली अग्निकांड में आए बच्चों की स्मृति में बनाया गया है। अधिकांश अग्निकांड पीडि़तों का मानना है कि केवल भवन बनाने से उनके पेट की भूख शांत नहीं हो सकती। जिनको नौकरियों की जरूरत है, उन्हें नौकरी देकर और जिनको इलाज की जरूरत है, उन्हें इलाज देकर ही उनकी समस्या का समाधान किया जा सकता है।
अग्निकांड में अपने पति रविन्द्र कौशल को खो चुकी सरोज कौशल का कहना है कि उसके दो बेटे और एक बेटी है। मेहनत-मजदूरी करके बड़ी मुश्किल से उसने उन्हें पाला-पोसा है। अग्निकांड के बाद सरकार ने मृतक परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने का भरोसा दिलाया था। लेकिन सरकारी नौकरी तो दूर सरकार ने उसकी कोई सहायता भी नहीं की।
अग्निकांड पीडि़त रमेश सचदेवा के अनुसार पिछले पंद्रह सालों से डबवाली अग्निकांड को लेकर सरकारों की भूमिका नकारात्मक ही रही है। जबकि सरकार को चाहिए कि वह इस दिन को पूरे देश में अग्नि सुरक्षा दिवस के रूप में मनाए और अग्नि से कैसे सुरक्षित रहा जा सकता है, इस संबंध में जन जागरण अभियान चलाए।
उन्होंने कहा कि आज भी ऐसे पीडि़त परिवार हैं, जिनकी परिवारिक स्थिति काफी नाजुक हो चुकी है। कुछ की हालत तो रि-मैरिज के बावजूद भी पेचिदा हो चुकी है। उनको समाज की मुख्यधारा में लाने तथा उन्हें पुर्नस्थापित करने के लिए सद्भावना कमेटी का गठन किया जाए। जो उनके जख्मों पर मरहम लगाए। उनके अनुसार कुछ ऐसे परिवार भी हैं, जिनको आज नौकरी की जरूरत है। सरकार उन्हें उनकी योग्यता अनुसार नौकरी दे। बॉबी और सुमन जैसे ऐसे भी बच्चे हैं, जिनके लिए उनके पूरे जीवन भर के लिए व्यवस्था की जानी चाहिए और जो बच्चे इस कांड के कारण अपनी पढ़ाई को आगे जारी नहीं रख सके, उन्हें भी गुजारा करने के लिए व्यापक आर्थिक सहायता की जरूरत है, जो उन्हें दी जानी चाहिए।
इधर कई अग्निकांड पीडि़तों ने तो हर साल की ब्यानबाजी के बाद अब अपना दुखड़ा भी सुनाना बंद कर दिया है। उनका कहना है कि वे पिछले पंद्रह बरसों से सरकारों को अपनी दु:ख भरी कहानी सुनाते आ रहे हैं। जब उनकी सुनवाई ही नहीं होनी, तो बेहतर है कि मन मसोस कर भीतर ही भीतर अपने दु:ख को पी लिया जाए।
सरकार ने अग्निकांड में शहीद हुए बच्चों की स्मृति में नाम में तो डबवाली नगर में अस्पताल, कम्युनिटी हाल और स्टेडियम बनाया है। लेकिन वास्तव में अग्निपीडि़तों के अनुसार उन्हें भूल-भुलैया में ही रखा गया है।

ज्यों के त्योंअग्निकांड के कारण

डबवाली (लहू की लौ) विश्व का सबसे बड़ा अग्निकांड जिन कारणों को लेकर घटित हुआ, वह कारण आज भी ज्यों के त्यों कायम है। इससे न तो प्रशासन ने और न ही सरकार ने कोई सबक लिया है।
डबवाली अग्निकांड फायर विक्टम एसोसिएशन के पूर्व प्रवक्ता रामप्रकाश सेठी ने बताया कि विश्व की सबसे बड़ी यह ट्रेजडी डबवाली में घटित हुई, तो उस समय केवल डबवाली का प्रशासन ही नहीं बल्कि प्रदेश, देश और विश्व की सरकारें हिल गई थीं। उस समय अग्निकांड के लिए जिम्मेवार कमियों को दूर करने के प्रयास किए जाने पर जोर दिया जाना शुरू हो गया था। लेकिन इस घटना को बीते पंद्रह वर्षों के बाद भी सरकार की सोच में कोई परिवर्तन नहीं आया है।
आज भी विद्यालयों में अग्निश्मक यंत्र नहीं है, प्रशासन की अनुमति के बिना पण्डाल बन रहे हैं और उनमें निर्धारित संख्या में गेट नहीं रखे जाते, यहां तक की समारोह पंडालों के पास भी आग जलाकर भोजन आदि की व्यवस्था की जाती है। हरियाणा में उस समय यह भी आदेश जारी किए गए थे, कि जब भी कहीं सार्वजनिक स्थल पर कोई विवाह समारोह, जागरण आदि हो तो उसकी स्वीकृत्ति नगरपालिका से ली जाए, ताकि वहां पर फायर ब्रिगेड की व्यवस्था की जा सकें। यह सब भी नदारद है।
इससे भी बढ़कर अगर कहीं कोई कमी रह गई है, तो वह डबवाली नगर में आज भी देखी जा सकती है। नगरपालिका की फायर ब्रिगेड को चलाने के लिए चालक ही नहीं है। यदि चालक नहीं होगा, तो फायर ब्रिगेड किसी भी आपातकालीन स्थिति से निपटने के लिए कैसे पहुंच पाएगी। जानकार सूत्रों के अनुसार फायर ब्रिगेड पर तीन चालकों की जरूरत है और सात फायरमैन लेकिन न तो चालक हैं और न ही पूरे फायरमैन।
इस संदर्भ में उपमण्डलाधीश तथा डबवाली नगरपालिका के कार्यकारी प्रशासक डॉ. मुनीश नागपाल से बातचीत की गई तो उन्होंने बताया कि वे प्रशासनिक कार्यों में व्यस्त थे। हालांकि इस संबंध में साक्षात्कार लिया जा चुका है और शीघ्र ही इनकी नियुक्ति कर दी जाएगी।

अग्निकांड पीडि़तों के जख्मों पर मरहम लगाने के लिए अभी बहुत कुछ करना बाकी

डबवाली (लहू की लौ) करीब पंद्रह साल पूर्व डबवाली में घटित अग्निकांड की दुखद छाया अभी भी नगर का पीछा नहीं छोड़ रही है। पीडि़तों में इस कांड का दर्द भले ही छुप गया है। लेकिन भीतर ही भीतर मधुमेह की तरह उन्हें खा रहा है। पीडि़तों को सरकारों से बड़ी आशाएं थी। लेकिन उन्हें कुछ भी नहीं मिला। अगर कहीं से कुछ मिला, तो वह न्याय अदालत से ही मिला। जिससे पीडि़तों के जख्म कुछ शांत हुए, लेकिन अभी भी जख्मों पर मरहम लगाने के लिए काफी कुछ किया जाना बाकी है।
23 दिसंबर 1995 को 1 बजकर 47 मिनट पर डबवाली के डीएवी स्कूल द्वारा आयोजित वार्षिक समारोह में अचानक आग लगने से 442 दर्शक काल का ग्रास बन गए। जिसमें 136  महिलाएं, 258 बच्चे शामिल थे। जबकि 150 से भी अधिक घायल हुए। विश्व में अब तक का यह सबसे बड़ा अग्निकांड है। जिसमें इतनी भारी संख्या में जीवित लोग झुलस कर शहीद हो गए और घायल हुए। घायलों का विभिन्न अस्पतालों में इलाज चला और कुछ घायल हो ऐसे भी हैं, जिनका आज भी इलाज चल रहा है।
अग्निकांड पीडि़त एसोसिएशन डबवाली के प्रवक्ता विनोद बांसल ने बताया कि साल 1996 में न्याय पाने के लिए एसोसिएशन को पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में जाना पड़ा। अदालत ने एसोसिएशन की याचिका पर साल 2003 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश टीपी गर्ग पर आधारित एक सदस्यीय आयोग का गठन करके उन्हें संबंधित पक्षों पर मुआवजा निर्धारित करने का अधिकार दिया। मार्च 2009 को आयोग ने पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में अपनी रिपोर्ट दी। नवंबर 2009 में हाईकोर्ट ने मुआवजा के संबंध में अपना फैसला सुनाते हुए हरियाणा सरकार को 45 प्रतिशत और डीएवी संस्थान को 55 प्रतिशत मुआवजा राशि पीडि़तों को अदा करने के आदेश दिए। अदालत ने सरकार को 45 प्रतिशत मुआवजा के रूप में 21 करोड़, 26 लाख, 11 हजार 828 रूपए और 30 लाख रूपए ब्याज के रूप में अदा करने के आदेश दिए। जबकि डीएवी संस्थान को 55 प्रतिशत के रूप में 30 करोड़ रूपए की राशि अदा करने के लिए कहा।
आदेश के बावजूद भी करना पड़ा संघर्ष
अग्निकांड पीडि़तों को अदालत द्वारा मुआवजा दिए जाने के आदेश जारी करने के बावजूद भी जब सरकार ने इसके विरूद्ध अपील करने की ठानी तो इसकी भनक पाकर इनेलो से डबवाली के विधायक डॉ. अजय सिंह चौटाला को अग्निकांड पीडि़तों को साथ लेकर संघर्ष करना पड़ा। जिसके चलते सरकार ने तो अपने हाथ पीछे खींच लिए। लेकिन डीएवी मुआवजा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में चला गया।
डीएवी को भरना पड़ा 10 करोड़
सुप्रीम कोर्ट में मुआवजा से राहत पाने के लिए गए डीएवी संस्थान को उच्चतम न्यायालय ने 10 करोड़ रूपए की राशि पीडि़तों को देने के आदेश दिए और इसके बाद सुनवाई करने की बात कही। इससे मजबूर होकर 15 मार्च 2010 को डीएवी संस्थान ने 10 करोड़ रूपए की राशि अदालत में जमा करवाई। अब 5 जनवरी 2011 को इस याचिका पर सुनवाई होनी है। पीडि़तों को अदालत से न्याय की आशा है, जिसके चलते पीडि़तों को उम्मीद बंधी है कि उच्चतम न्यायालय केवल पीडि़तों के पक्ष में ही निर्णय नहीं करेगी, बल्कि उन्हें जो मुआवजा कम मिला है, उसे भी बढ़ाकर देगी।
अग्निकांड पीडि़तों को उच्च न्यायालय ने मुआवजा राशि अदा करने के आदेश देकर उनके जख्मों पर मरहम तो लगाई है। लेकिन जख्मों की टीस अभी भी पीडि़तों के बदन और मन पर कायम है। जिसको समय के साथ-साथ उनके रिहबेलीटेशन के लिए और उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए अभी भी काफी कुछ किया जाना बाकी है। जिसमें बेरोजगारों के लिए रोजगार, पीडि़तों के बच्चों के लिए नि:शुल्क शिक्षा और जब तक उन्हें रोजगार नहीं मिलता, तब तक उन्हें आर्थिक सहायता।