आजकल स्कूल, स्कूल कम और रिसोर्ट अधिक बन गये हैं। रिसोर्ट महज क्षणिक खुशी देने या समय बिताने का साधन होते हैं, ना कि शिक्षा देकर जीवन बनाने या जीवन लक्ष्य निर्धारित करने के। मैं विद्यालय, स्कूल के आधुनिकीकरण के पक्ष में तो हूं लेकिन राग विलास के स्त्रोत बनाने के विरोध में। हम जिन स्कूलों, कॉलेजों में पढ़कर आये, वहां का फर्नीचर, मैदान, पुस्तकालय आदि वहीं छोड़कर आये। बस वहां से ज्ञान और डिग्रीयां ही हमारे साथ आई। यही विद्यार्थियों की निजी पूंजी होती है। स्कूलों को आधुनिक बनाते समय बच्चों के मनोविज्ञान व कार्यक्षमता का भी ध्यान रखना चाहिए।
बच्चों के आयुवर्ग के अनुसार कार्य लेना होता है, ताकि वे तनाव मुक्त भी रहें और स्तरीय शिक्षा भी प्राप्त करते रहें। आजकल बच्चों को स्कूल,स्कूल कम लगते हैं, जेल ज्यादा। वे अध्यापकों को अपना मार्गदर्शक न मानकर विरोधी समझते हैं। मैं पिछले तेरह सालों से शिक्षा के क्षेत्र में हूं। मैने भारत के अलग-अलग आधुनिक व पिछड़े हुए भागों में पढ़ाया है। मुझे अनुभव हुआ कि विद्यार्थियों को हम अध्यापक के समान या कभी कभार अधिक महत्व देते हैं। जोकि अनुचित सिद्ध होता है। बाल बुद्धि अभी मैच्चौर नहीं हुई होती तो उनके अनुसार स्कूलों के कार्य करने की शैली/ढंग तरीके बदलने के कुपरिणाम सामने आते रहे हैं, और यदि हम आधुनिकता के आवरण में उनकी अपरिपक्व इच्छाओं को पूरा करने के लिए लचीलापन लाते गये तो निश्चित रूप से एक दिन शिक्षा संज्ञाहीन व परिणाम हीन हो जायेगी।
शिक्षा कभी मंहगी नहीं होती और न ही शिक्षक मंहगे होते हैं। लेकिन कुछ प्रबंधक सहुलियतों के नाम तले स्कूलों को रिसार्टस की भांति हाई रेटिड या हाई गेडिड बना लेते हैं। स्कूलों से लाभ कमाना कतई अनुचित नहीं है। लेकिन मां बाप का शोषण करना अमानवीय है। अपने स्कूलों को समृद्ध बनाने के लिए सुविधा के अनुसार वार्षिक खर्चो में बढ़ौतरी करना बुरा नहीं होता। परन्तु 100 रूपये की सुविधा देकर 2000 रूपये की वसूली तो अंडरवल्र्ड की फिरौती जैसी लगती है। मेरे नजरिये में सारी भाषायें सम्मानीय हैं, अंग्रेजी भाषा चूंकि अन्तर्राष्ट्रीय बन गई है तो इसका प्रभाव व महत्व बढ़ गया है। लेकिन क्या मैथ, साईंस, सोशल साईंस विषय महत्वहीन हो गये हैं? नहीं। जैसे सभी अंग पूरे हों, तभी शरीर सही कार्य करता है, उसी प्रकार सभी विषय एक जैसे ही महत्वपूर्ण हैं और उनका पूरा अध्ययन करना ही संपूर्ण शिक्षा है।
बच्चों के संपूर्ण विकास के लिए अंग्रेजी भी उतनी सहायक, जितनी मातृ भाषायें।
विद्यार्थियों पर अपनी अत्याधिक अपेक्षायें लादकर हम उन्हें गधे बनाने पर तुले हुए हैँ। क्या ऐसा नहीं है? हम सभी जानते हैं कि बाप ने न मारा तीर, बेटा तीरदाज। जो हम न बन सके, अपने बच्चों को जबरन वही बनाना चाहते हैं, भले उसमें वो स्टेमिना और इच्छा शक्ति न हो।
नहीं, पूर्ण शिक्षा तो सर्वप्रथम स्वस्थ मानव बनाती है और स्वस्थ मानव ही सफल डाक्टर, पत्रकार, इंजीनियर, दुकानदार, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता, संपादक बनता है। स्वस्थ व संतुलित माहौल में पढ़े, बढ़े बच्चे ही समाज को संवारत, संभालते है।
मैं इसी तरह का तनाव रहित वातावरण दे रहा हूं, अपने स्कूल केअर वैल इन्टरनैशनल में हम बच्चों को कम्पीटिशन तो दे रहे हैं लेकिन पहली पोजीशन वाले बच्चे से नहीं, बल्कि अपनी पोजीशन से। सैल्फ कम्पीटिशन के सुधारवादी स्वस्थ कम्पीटिशन की सोच से।
साल के शुरू में बच्चे की अपनी परफारमेंस क्या थी। और साल भर उसने सीखने में क्या ग्रोथ की। यही ढंग है, तनावरहित शिक्षा वातावरण का।
गुलाब का फूल कभी नहीं कहता कि उसे गेंदा, चमेली होना है, खरगोश कभी नहीं कहता कि उसे हाथी होना है। फिर मनुष्य क्यों किसी और जैसा होने में अपने बच्चों की मौलिक प्रतिभा को मार रहा है। मैं अपने सभी विद्यार्थियों को अपने जैसा बने रहकर तनाव रहित स्वस्थ शैक्षिक माहौल दे रहा हूं। आओ।़ इस सृजनशीलता में अपने बच्चों को हमारे साथ स्वस्थ वातावरण में पढऩे बढऩे का अवसर दें।
-जगजीत सिंह
प्रिंसीपल/चेयरमैन
केअरवैल इंटरनैशनल स्कूल
मलोट रोड़, ख्योवाली।
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