Adsense

Lahoo Ki Lau

युवा दिलों की धड़कन, जन जागृति का दर्पण, निष्पक्ष एवं निर्भिक समाचार पत्र

Dabwali Agnikamd लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
Dabwali Agnikamd लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

03 जनवरी 2011

मासूमों के लिए आग में कूद गया था संजय ग्रोवर

डबवाली (डीडी गोयल) मेरे आंगन का चिराग बुझ गया, मुझे इसका गम नहीं है। बल्कि फक्र है इस बात का कि मेरे बेटे की शहादत से आज ओरों के आंगन के चिराग जगमगा रहे हैं।
ये शब्द हैं 23 दिसंबर 1995 को डबवाली अग्निकांड में करीब तीन दर्जन बच्चों को बचाने वाले डबवाली के शौर्य संजय ग्रोवर के पिता प्यारे लाल ग्रोवर के हैं। संजय ग्रोवर 23 दिसंबर 1995 को डबवाली अग्निकांड में बच्चों को बचाते समय बुरी तरह से झुलस गए थे। 1 जनवरी 1996 को उन्होंने संसार को अलविदा कह दिया था। एक ऐसा युवक जिसकी रग-रग में समाजसेवा बसी हुई थी। जरूरतमंदों की सहायता, जिसको वह अपना धर्म समझता था। ऐसा नौजवान जिसने मात्र 5वीं कक्षा में चिल्ड्रन क्लब बनाकर समाजसेवा करने का बीड़ा उठा लिया। 10वीं में उसने रोटरी इंट्रेक्ट नाम की संस्था खड़ी की। जिसने समाजसेवा में अग्रणि कार्य किए।
प्यारे लाल ग्रोवर के अनुसार संजय ग्रोवर को बचपन से ही समाजसेवा का बड़ा शौक था। अपने जेब खर्च को किसी जरूरतमंद पर लगा देना, उसने अपना कत्र्तव्य बना लिया था। संजय ग्रोवर की याद ताजा करते हुए उनके पिता ने बताया कि साल 1992 में उनके घर में धूमधाम से दीवाली मनाई जा रही थी। संजय के पास किसी का फोन आया कि एक गर्भवती महिला की हालत खराब है। फोन सुनते ही वह दौड़ चला। जब उसे रोका गया तो संजय का जवाब था कि यदि महिला का बच्चा या महिला मर गई, तो यह दीवाली उसके लिए काली दीवाली होगी। अगर उस घर में चिराग न जला तो दीवाली पर अपने घर में रोशनी का दीपक जलाने का क्या फायदा। ऐसी अनगिनत मिसाल हैं, जो केवल शब्दों में ब्यां नहीं की जा सकतीं।जरूरतमंद लड़कियों की शादी करने की बात हो या फिर मृत्यु शैय्या पर पड़े घायल को रक्त देने की बात हो। ऐसे कार्यों में संजय ग्रोवर हमेशा आगे रहता था।
संजय ग्रोवर ने जीवन और मौत के बीच संघर्ष करते हुए 1 जनवरी 1996 को सीएमसी लुधियाना में सुबह करीब 2.30 बजे प्राण त्याग दिये। इससे पूर्व उनके साथ उनके पिता प्यारे लाल ग्रोवर, माता मथरा देवी, भाई प्रवीण कुमार भी थे। बर्न यूनिट से इमरजेंसी वार्ड में शिफ्ट करते समय संजय ग्रोवर ने वहां मौजूद लोगों से कहा कि अब मेरे जाने का समय हो गया है। मुझे खुशी-खुशी विदा करो। मेरे मरने के बाद रोना मत। बस! मेरी जिन्दगी इतनी ही थी। यदि मेरा बस चलता तो मैं और भी बच्चों को बचाता। मुझे अफसोस रहेगा कि मैं और बच्चे नहीं बचा पाया। इसके कुछ देर बाद संजय ने दम तोड़ दिया।
 वे छात्र जीवन में मेधावी छात्र के रूप में जाने जाते थे। कालेज जीवन में यहां वे पढ़ाई में होशियार थे वहीं अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय थे। उन्होंने 1991 में हरियाणा के बहादुर गढ़ में हरियाणा राज्य विज्ञान प्रर्दशनी में भाग लेकर दूसरा स्थान पाया। जबकि 1985 में गुरू नानक कॉलेज किलियांवाली की तरफ  से डल्हौजी में लगे यूथ लीडरशिप ट्रेनिंग शिविर में वैस्ट कैम्पर का पुरस्कार जीता था। 1984-85 में उन्हें कॉलेज के बेस्ट एक्टर का खिताब भी मिला। बीए की शिक्षा के बाद उन्होंने अपने व्यवसाय के साथ—साथ 19 बार रक्तदान करके कई जिंदगियों को बचाने का प्रयास किया।
उन्होंने अपने जीवन काल में जिला कांगड़ा में एक पहाड़ी पर बने माता जयंती मन्दिर के लिए सीढिय़ों के लिए सहयोग दिया और डबवाली में स्थित वैष्णों माता मन्दिर के निर्माण में अहम भूमिका निभाई और उसके सदस्य तथा मंदिर लंगर कमेटी के महासचिव रहे। 1992 और 1995 में सिरसा में घग्गर की बाढ़ के समय वहां जाकर पशुओं के लिए चारे की व्यवस्था की । यहीं नहीं वह अरोड़वंश हाईस्कूल, डीएवी स्कूल की स्थानीय कमेटी और डबवाली सिटीजन फोरम व रामबाग प्रबंधक कमेटी के सदस्य भी रहे। ग्रोवर रोट्रेक्ट क्लब के अध्यक्ष और महासचिव, रोटरी जिला 309 द्वारा 1992 में आयोजित रोटेशिया-92 कान्फ्रैंंस के अन्तर्गत कलकत्ता व नेपाल का 27 दिन के टूर पर रहे और जिला सिरसा से जाने वाले सदस्यों में बैस्ट सदस्य का पुरस्कार जीता।
नहीं मिला शौर्य पुरस्कार
डबवाली अग्निकांड के बाद अग्निकांड पीडि़त परिवारों से संवेदना व्यक्त करने आए उस समय के एमपी चन्द्रशेखर ने संजय ग्रोवर को शौर्य पुरस्कार से सम्मानित करने के लिए भारत सरकार को अपनी सिफारिश की थी। बाद में चन्द्रशेखर देश के प्रधानमंत्री भी रहे। लेकिन अपनी सिफारिश और संजय की बहादुरी उन्हें याद नहीं रही। अब समय है कि सरकार इस पर गौर करे और संजय ग्रोवर को मरणोपरांत शौर्य पुरस्कार से सम्मानित करे। हालांकि ग्रोवर को मरणोपरांत उनके शौर्य के लिए 16 जनवरी 1996 को रेड एण्ड व्हाईट कम्पनी ने कोलकत्ता में आयोजित एक समारोह में छटे बहादुरी पुरस्कार तथा भारत सरकार ने राष्ट्रीय युवा पुरस्कार से सम्मानित किया।
पिता के नक्शेकदम पर बेटा
संजय ग्रोवर के दोनों बेटे पारूल ग्रोवर और नवनीत ग्रोवर अपने पिता के नक्शे कदम पर हैं। पारूल ग्रोवर अपने पिता की तरह रक्तदान के क्षेत्र में उतरा हुआ है। वहीं उसने अपने पिता संजय ग्रोवर के अधूरे रह गए सपने को  पूरा करने का संकल्प लिया है। वह अपने पिता शहीद संजय ग्रोवर के नाम पर एक संस्था का निर्माण करने जा रहा है। जोकि गरीब कन्याओं की शादी और रक्तदान के क्षेत्र में अपना योगदान देगी। पारूल ग्रोवर के अनुसार ब्लड के बदले ब्लड की परम्परा तो ठीक है। लेकिन ब्लड के बदले पैसे मांगना यह ठीक नहीं। रक्तदान महादान है और मृत्यु शैय्या पर पड़े व्यक्ति से ब्लड के बदले पैसे मांगना उचित नहीं। इसी के कारण वह अपने पिता शहीद संजय ग्रोवर के नाम पर संस्था गठित करने जा रहा है, जिसका प्रत्येक सदस्य रक्त की जरूरत पडऩे पर रक्तदान के लिए तैयार खड़ा होगा।

25 दिसंबर 2010

.....नहीं रूकते 'सागरÓ के आंसू

डबवाली (लहू की लौ) 23 दिसंबर को डबवाली के इतिहास का काला दिन कहा जाता है। कहा भी क्यूं ना जाए। 23 दिसंबर 1995 को हुए अग्निकांड ने सैंकड़ों परिवारों को उजाड़कर रख दिया। अग्निकांड में झुलसे लोगों की पहचान तक नहीं हुई। उस दिन सगे-संबंधियों ने अंदाजे भर से शव को अपने सीने से लगाया और मुखाग्नि दी। इतने साल बीतने के बावजूद भी वह दिन किसी को नहीं भूलता। हर साल दिसंबर माह की शुरूआत जख्म कुरेदती है। दिसंबर 23 को प्रत्येक शहर वासी की आंख भर आती है। इस दिन शहर का प्रत्येक व्यक्ति नम आंखों से अग्निकांड स्मारक पर पहुंचकर अग्निकांड में झुलसे लोगों को श्रद्धांजलि अर्पित करता है।
दिसंबर 22, 2010। समय 12 बजकर 06 मिनट। अग्निकांड स्मारक स्थल के एक कोने में बैठ इधर-उधर देखता एक व्यक्ति। जैसे किसी को ढूंढ रहा हो। बार-बार आंखे पौंछ रहा। लेकिन उसके आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। संवाददाता की नजर इस व्यक्ति पर पड़ी। भरी आंखों से इस व्यक्ति ने संवाददाता को अपनी पहचान विद्या सागर (50) निवासी एकता नगरी, डबवाली के रूप में करवाई और अपनी दर्द भरी कहानी से भी अवगत करवाया।
विद्या सागर ने बताया कि उसके दो बच्चे नेहा गुप्ता (7) और जतिन (5) डीएवी में पढ़ते थे। 23 दिसंबर 1995 को डीएवी के सातवें वार्षिक समारोह में उन्होंने हिस्सा लिया था। समारोह के लिए दोनों बच्चों में बढ़ा उत्साह था। उन्होंने नई ड्रेसज भी सिलवाई थी। उसकी पत्नी किरण गुप्ता सवा साल के बेटे दीपक को गोद में उठाए समारोह में बच्चों की परफोरमेंस देखने के लिए चली गई।
23 दिसंबर 1995 को वह मेन बाजार में स्थित अपनी खल-बिनौले की दुकान में व्यस्त था। दोपहर बाद करीब 1 बजे उसने समारोह से किरण को लाने के लिए स्कूटर स्टार्ट किया ही था। अचानक दुकान पर ग्राहक आ गया और वह उसी में व्यस्त हो गया। 2 बजे के करीब उसे सूचना मिली कि समारोह में आग लग गई है। सैंकड़ों बच्चे, दर्शक झुलस गए हैं। यह सुनकर वह समारोह स्थल पर पहुंचा। शवों के बीच उसे सवा साल के बेटे दीपक तथा धर्मपत्नी किरण का शव मिला। दीपक अपनी मां किरण से लिपटा हुआ था। बिखरे शवों में से उसके दूसरे बेटे जतिन का शव भी मिल गया। लेकिन उसकी बेटी नेहा का शव नहीं मिला। 24 दिसंबर को उसने पुन: तालाश शुरू की। लेकिन शव बुरी तरह से जले हुए थे। जिन्हें पहचान पाना नामुमकिन था। कलेजे पर पत्थर रखकर उसने कद के अंदाजे से नेहा को पहचाना और अन्य शवों के साथ उसका अंतिम संस्कार कर दिया। लेकिन उसे नहीं मालूम वह शव उसकी नेहा का था या किसी ओर का।
विद्या सागर के अनुसार हर साल दिसंबर माह शुरू होते ही 23 दिसंबर 1995 की हृदय को पिघला देनेे वाली घटना दोबारा जेहन में उतर आती है। आंखों में दर्द लिए हर साल दिसंबर 23 को अग्निकांड स्मारक पर आता है। करीब पंद्रह साल पहले घर से सज्ज-संवरकर निकले अपने पारिवारिक सदस्यों को ये आंखे न जाने क्यूं स्मारक में आकर ढूंढने लग जाती हैं। नेहा, जतिन, दीपक और किरण के साथ बिताया जिन्दगी का एक-एक पल खुद-ब-खुद सामने आने लगता है।
विद्या सागर ने बताया कि विश्व के सबसे बड़े अग्निकांड को हुए करीब पंद्रह साल हो चुके हैं। लेकिन आज तक देश की सरकार ने कोई सबक नहीं लिया। सरकार को ऐसे प्रबंध करने चाहिए ताकि डबवाली अग्निकांड की पुनर्रावृत्ति न हो। उन्हें इस बात का दु:ख है कि 23 दिसंबर 1995 के बाद फौरी तौर पर सरकार ने डबवाली के लोगों तथा अग्निकांड पीडि़तों को इस गम से उबारने के लिए कुछ घोषणाएं की थी। लेकिन पंद्रह साल बाद भी वे महज घोषणाएं हैं।