17 मार्च 2010

कितने हैं जो दूसरों को प्रेम देते हैं-जैन साध्वी

डबवाली (लहू की लौ) अढाई अक्षर प्रेम के लिए हर कोई यह अभिलाषा करता है कि हर जन मुझे से प्रेम करे यह बात जैन साध्वियों उज्ज्वल कुमारी, सूरज प्रभा तथा डा. लवण्यायशा ने लगभग एक माह से नित्य चलने वाली सांयकालिन कथा के दौरान कहे। उन्होंने उपस्थित जनसमूह से यह सवाल किया कि हर कोई प्रेम तो चाहता है परन्तु कितने हैं जो दूसरों को प्रेम देते हैं। परन्तु उन्होंने यह चिन्ता भी व्यक्त की कि प्रेम करें किससे। क्या भजन गाने से, हाथ मिलाने से प्रेम हो जाता है।
उन्होंने कहा कि प्रेम तब होता है जब हम अंदर से सरल हो जाते हैं। किसी भी वस्तु को तब तक हासिल नहीं किया जा सकता जब तक हम पूर्ण रूप से उसका मूल्य नहीं दे देते। उसी प्रकार हम पूर्ण समर्पित हुए बिना न तो किसी से प्रेम पा सकते हैं और न हीं किसी को प्रेम दे सकते हैं।
भगवान को पाने के लिए भी हमें द्रौपदी की तरह पूर्ण समपर्ण करना होगा। उन्होंने बताया कि द्रौपदी को भी भगवान ने चीर तभी प्रदान किया जब उसने दोनों हाथ उठाकर स्वयं को पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया।
हम जब तक अपने मन में अनुराग नहीं जगाते और जब तक क्रोध, काम, मोह, माया का त्याग नहीं करते तब तक परमात्मा का प्रेम नहीं मिलता। यदि हम मैले दर्पण में अपना चेहरा देखेंग तो वह भी हमें सुन्दर दिखाई नहीं देगा। हम भले ही सुन्दर हों। अर्थात् हमें अपने-अपने मन रूपी दर्पण को सदैव साफ रखना होगा तभी हम प्रेम पा सकते हैं और तभी हम प्रेम दे भी सकते हैं। व्यक्ति स्वयं को प्रेम करना सीखे तो ही वह प्रेम लेेने का अधिकारी बन सकता है।

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